सम्पादक के पास भेजो (यह दो प्रतिलिपियां हमारे पास उनकी पिछली मित्रता की स्मृतिस्वरूप विद्यमान हैं) इस बात का
पूरा प्रमाण है। उन्होंने हमें मेरठ में कई बार कहा कि हम सन् १८८४ नहीं देखेंगे।
सहानुभूति प्रकट करने वाले समाचार पत्र-विस्तार के भय से हम सब समाचारपत्रों के लेख यहां प्रकाशित नहीं
कर सकते। केवल निम्नलिखित समाचार पत्रों के नाम जिन्होंने पूर्ण सहानुभूति उनकी मृत्यु पर प्रकट की, लिख देना ही
पर्याप्त समझते है-'देश हितैषी' अजमेर 'बंगवासी 'हिन्दी प्रदीप' प्रयाग, 'भारत बन्धु' अलीगढ़, सारसुधानिधि कलकता
'भारतमित्र' कलकत्ता, 'ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका' लाहौर, 'धर्म दिवाकर' कलकत्ता, 'खत्री हितकारी' बनारस, 'भारतमित्र',
आर्य दर्पण', 'आर्य समाचार', 'पताका', ट्रिब्यून' लाहौर 'इण्डियन ऐम्पायर' कलकत्ता, 'इण्डियन क्रॉनिकल कलकत्ता,
'हिन्दू' मद्रास, 'टाइम्ज' पंजाब-रावलपिंडी, 'बंगाली' कलकत्ता, 'हिन्दू पैट्रियट कलकत्ता, 'पायनियर' इलाहाबाद,
सिविल एंड मिलिटरी गजट' लाहौर, 'थियोसोफिस्ट 'इण्डियन मिरर' कलकत्ता, 'गुजरातमित्र सूरत, रीजेनरेटर आफ
आर्यावर्त"आर्य मैगजीन " आर्य पत्रिका 'गुजराती 'सौराष्ट्र दर्पण','राजपुताना गजट' अजमेर,'अन्जुमन' पंजाब-लाहौर,
कोहिनूर' लाहौर, 'विक्टोरिया पेपर' सियालकोट 'केसरी' जालन्धर, 'आफताबे पंजाब, 'देशोपकारक।
अनेक कवियों ने उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में कसीदे (प्रशंसात्मक गीत) शेर, दोहे, छन्द, चौपाई, लावनी आदि
लिखीं परन्तु सबमें प्रथम श्रेणी की आर्य कवि चौधरी नवलसिंह जी की यह प्रसिद्ध लावनी है जिसकी टेक निम्नलिखत है
दयानन्द आनन्दकन्द भये पाखंडन के मत टारन।
हुये जगत् विख्यात चहु दिशि परमार्थी तरन तारन ।
विदेशियों की सम्पतियां-मोनियर विलियम्स और मैक्समूलर आदि कई विदेशियों ने स्वामी जी और उनके
उद्देश्य के सम्बन्ध में सम्मतियां प्रकट की परन्तु विदेशियों के लेखों में प्रथम श्रेणी का निष्पक्ष लेख अमरीका के प्रसिद्ध
लेखक एंड्रो जैक्सन डेविस का है, जिसको लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है और जिसका अनुवाद निम्नलिखित है। .
"मुझे एक अग्नि दिखाई देती है जो सार्वभौम है अर्थात् वह असीमित प्रेम की अग्नि, जो घृणा को जलाने वाली
है और प्रत्येक वस्तु को जला कर साफ कर रही है अमरीका के चुटियल क्षेत्रों, अफ्रीका के विस्तृत देशों, एशिया के प्राचीन
पर्वतों और यूरोप के विस्तृत राज्यों पर मुझे इस पूर्णतया जलने वाली अग्नि की भड़कती हुई चिनगारियां दिखाई देती हैं।
इसकी चर्चा समस्त पिछड़े हुये स्थानों से आरम्भ हुई है। अपने सुख और उन्नति के लिये इसे मनुष्य ने स्वयं प्रज्वलित
किया है। पृथ्वी तल पर मनुष्य ही ऐसी सृष्टि है जो आग को जला कर उसे स्थिर रख सकता है चूंकि पृथिवी की सृष्टि में
बोलने वाला (समझदार, बुद्धिमान्) भी यही है इसलिये अपने निवासस्थान में नारकीय अग्नि भड़काने में सबसे प्रथम है।
हां, परमहंस की भांति नारकीय मकानों को प्रेम से पवित्र और बुद्धि से प्रकाशित करने वाली आकाशीय अग्नि लाने के लिये
भी यही सबसे आगे हैं। इस असीमित अग्नि को देखकर जो निश्चित रूप से राज्यों, राज्यसत्ताओं और संसार भर की
राजनीतिक बुराइयों को पिघला डालेगी, मैं अत्यंत आनन्दित होकर एक उत्तेजित उत्साह का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ । सब
ऊंचे-ऊंचे पर्वत जल उठेगे, घाटियों के सुन्दर नगर भुन जायेंगे। प्यारे घर और प्रेम से भरे हये साथ-साथ पिघलेगे।
अच्छे और बुरे मिलकर जो लुप्त होंगे जैसे सूर्य की सुनहरी किरणों में ओस के विन्दु । असीमित उन्नति की विद्युत से
1. देखो चौधरी नवलसिंह जी द्वारा 'सभा प्रसन्न'
एण्डो जैक्सन डेविस द्वारा लिखित बियाड दी वैली' (Beyond the Vallcy), पृष्ठ ३८२
मानवी चित्त हिल रहा है, आज उसकी केवल चिन्गारियां आकाश की ओर उड़ती हैं। व्याख्यानदाताओं, कवियों और
लेखकों की शिक्षाओं में इधर-उधर ज्वालायें दिखाई देती हैं।
यह अग्नि सनातन आर्य धर्म का वास्तविक पवित्र दशा में लाने के लिये एक भट्टी में थी जिसे ' आर्यसमाज' कहते
हैं। यह अग्नि भारतवर्ष के परम योगी 'दयानन्द सरस्वती के हृदय में प्रकाशमान हुई थी हिन्दू और मुसलमान इस संसार
को भस्म करने वाली अग्नि को बुझाने के लिये चारों ओर शीघ्रता से दौड़े परन्तु यह अग्नि ऐसे वेग से बढ़ती गई कि इस
वेग का इसके संस्थापक दयानन्द को ध्यान भी न था और ईसाइयों ने भी, जिनके उपासना गृह की आग और पवित्र दीपक
पूर्व में ही प्रकाशित हुये थे, एशिया के इस नये प्रकाश को बुझाने के लिये हिन्दू और मुसलमानों का साथ दिया परन्तु यह
आकाशीय अग्नि और भी भड़क उठी और फैल गई समस्त बुराइयों का समूह नित्य की शुद्ध करने वाली भट्टी में जल
कर भस्म हो जाएगा। जब तक रोग के स्थान पर स्वास्थ्य मूर्तियों के स्थान पर प्रकृति, पोप के स्थान पर युवित, पाप के
स्थान पर पुण्य, अविद्या के स्थान पर विज्ञान, घृणा के स्थान पर प्रेम, वैर के स्थान पर समता, नरक के स्थान पर स्वर्ग,दुःख
के स्थान में सुख, भूत-प्रेतों के स्थान पर परमेश्वर और प्रकृति का राज्य न हो जाये तब तक यह अग्नि जलती रहेगी। मैं
इस अग्नि को दिशा को बधाई देता हूं। जब यह अग्नि सुन्दर पृथिवी को नवजीवन प्रदान करेगी तो सार्वभौम सुख, समृद्धि
और आनन्द का युग आरम्भ होगा।"
अध्याय ६
आर्यसमाज ही महर्षि का स्मारक है
पांच हजार वर्ष पहले की बात है, उस समय पाताल देश के आर्य लोग आर्यावर्तीय आर्यों से विवाह सम्बन्ध करते
थे, परन्तु जब अविद्यान्धकार के बढ़ने पर लोगों ने जलयात्रा करनी छोड़ दी तो अमरीका वाले आर्यावर्त और यूरोप आदि
देशों को और इन देशों के निवासी अमरीका वालों को भूल गये और ऐसे अन्धकार में पड़े कि व्यवहार में एक दूसरे के
अस्तित्व तक को अस्वीकार कर बैठे। परन्तु उस अन्ध युग में भी पुरुषार्थ करने वाले 'कोलम्बस' ने पुराने यूनानियों के
सुझाव पर चलकर अमेरिका की सूचना यूरोप को दी 'कोलम्बस ने अमरीका को यद्यपि बनाया नहीं था केवल भले हओं
को उसकी सूचना ही दी है, तो भी आज कोलम्बस के नाम के साथ अमरीका का नाम जुड़ा हुआ है और अमरीका कहते ही
कोलम्बस का स्मरण हो आता है।
आर्यसमाज और दयानन्द का शाश्वत सम्बन्ध-पांच हजार वर्ष से पहले आर्यधर्म सभायें या आर्यसमाजें पृथिवी
पर सर्वत्र थीं क्योंकि वेदों में आर्यधर्मसभा के स्थापित करने की शिक्षा है परन्तु समय आया जबकि लोग आर्य नाम के
साथ आर्यसमाज को भूल गये । आज कैसा शुभ समय है कि महर्षि दयानंद के उपकार से मनुष्य अपने 'आर्य' नाम को
प्राप्त कर आर्य समाज का अस्तित्व देखता है । मुसलमान, ईसाई, नास्तिक, जैनी, पौराणिक आदि किसी भी पुरुष के सामने
आप आर्य समाज का नाम कह दो, वह सुनते ही तत्काल आपको दयानन्द का नाम सुना देगा। यदि कोई अमरीका से
कोलम्बस के नाम को पृथक नहीं कर सकता तो क्या कोई आर्यसमाज से उसके संस्थापक स्वामी दयानन्द के नाम को पृथक
कर सकता है ? यदि आर्यसमाज का नाम लेते ही स्वामी दयानन्द सरस्वती का स्मरण हो जाता है तो वास्तव में आर्यसमाज
से बढ़कर कोई स्वामी जी का स्मारक नहीं हो सकता।
पूरा प्रमाण है। उन्होंने हमें मेरठ में कई बार कहा कि हम सन् १८८४ नहीं देखेंगे।
सहानुभूति प्रकट करने वाले समाचार पत्र-विस्तार के भय से हम सब समाचारपत्रों के लेख यहां प्रकाशित नहीं
कर सकते। केवल निम्नलिखित समाचार पत्रों के नाम जिन्होंने पूर्ण सहानुभूति उनकी मृत्यु पर प्रकट की, लिख देना ही
पर्याप्त समझते है-'देश हितैषी' अजमेर 'बंगवासी 'हिन्दी प्रदीप' प्रयाग, 'भारत बन्धु' अलीगढ़, सारसुधानिधि कलकता
'भारतमित्र' कलकत्ता, 'ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका' लाहौर, 'धर्म दिवाकर' कलकत्ता, 'खत्री हितकारी' बनारस, 'भारतमित्र',
आर्य दर्पण', 'आर्य समाचार', 'पताका', ट्रिब्यून' लाहौर 'इण्डियन ऐम्पायर' कलकत्ता, 'इण्डियन क्रॉनिकल कलकत्ता,
'हिन्दू' मद्रास, 'टाइम्ज' पंजाब-रावलपिंडी, 'बंगाली' कलकत्ता, 'हिन्दू पैट्रियट कलकत्ता, 'पायनियर' इलाहाबाद,
सिविल एंड मिलिटरी गजट' लाहौर, 'थियोसोफिस्ट 'इण्डियन मिरर' कलकत्ता, 'गुजरातमित्र सूरत, रीजेनरेटर आफ
आर्यावर्त"आर्य मैगजीन " आर्य पत्रिका 'गुजराती 'सौराष्ट्र दर्पण','राजपुताना गजट' अजमेर,'अन्जुमन' पंजाब-लाहौर,
कोहिनूर' लाहौर, 'विक्टोरिया पेपर' सियालकोट 'केसरी' जालन्धर, 'आफताबे पंजाब, 'देशोपकारक।
अनेक कवियों ने उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में कसीदे (प्रशंसात्मक गीत) शेर, दोहे, छन्द, चौपाई, लावनी आदि
लिखीं परन्तु सबमें प्रथम श्रेणी की आर्य कवि चौधरी नवलसिंह जी की यह प्रसिद्ध लावनी है जिसकी टेक निम्नलिखत है
दयानन्द आनन्दकन्द भये पाखंडन के मत टारन।
हुये जगत् विख्यात चहु दिशि परमार्थी तरन तारन ।
विदेशियों की सम्पतियां-मोनियर विलियम्स और मैक्समूलर आदि कई विदेशियों ने स्वामी जी और उनके
उद्देश्य के सम्बन्ध में सम्मतियां प्रकट की परन्तु विदेशियों के लेखों में प्रथम श्रेणी का निष्पक्ष लेख अमरीका के प्रसिद्ध
लेखक एंड्रो जैक्सन डेविस का है, जिसको लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है और जिसका अनुवाद निम्नलिखित है। .
"मुझे एक अग्नि दिखाई देती है जो सार्वभौम है अर्थात् वह असीमित प्रेम की अग्नि, जो घृणा को जलाने वाली
है और प्रत्येक वस्तु को जला कर साफ कर रही है अमरीका के चुटियल क्षेत्रों, अफ्रीका के विस्तृत देशों, एशिया के प्राचीन
पर्वतों और यूरोप के विस्तृत राज्यों पर मुझे इस पूर्णतया जलने वाली अग्नि की भड़कती हुई चिनगारियां दिखाई देती हैं।
इसकी चर्चा समस्त पिछड़े हुये स्थानों से आरम्भ हुई है। अपने सुख और उन्नति के लिये इसे मनुष्य ने स्वयं प्रज्वलित
किया है। पृथ्वी तल पर मनुष्य ही ऐसी सृष्टि है जो आग को जला कर उसे स्थिर रख सकता है चूंकि पृथिवी की सृष्टि में
बोलने वाला (समझदार, बुद्धिमान्) भी यही है इसलिये अपने निवासस्थान में नारकीय अग्नि भड़काने में सबसे प्रथम है।
हां, परमहंस की भांति नारकीय मकानों को प्रेम से पवित्र और बुद्धि से प्रकाशित करने वाली आकाशीय अग्नि लाने के लिये
भी यही सबसे आगे हैं। इस असीमित अग्नि को देखकर जो निश्चित रूप से राज्यों, राज्यसत्ताओं और संसार भर की
राजनीतिक बुराइयों को पिघला डालेगी, मैं अत्यंत आनन्दित होकर एक उत्तेजित उत्साह का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ । सब
ऊंचे-ऊंचे पर्वत जल उठेगे, घाटियों के सुन्दर नगर भुन जायेंगे। प्यारे घर और प्रेम से भरे हये साथ-साथ पिघलेगे।
अच्छे और बुरे मिलकर जो लुप्त होंगे जैसे सूर्य की सुनहरी किरणों में ओस के विन्दु । असीमित उन्नति की विद्युत से
1. देखो चौधरी नवलसिंह जी द्वारा 'सभा प्रसन्न'
एण्डो जैक्सन डेविस द्वारा लिखित बियाड दी वैली' (Beyond the Vallcy), पृष्ठ ३८२
मानवी चित्त हिल रहा है, आज उसकी केवल चिन्गारियां आकाश की ओर उड़ती हैं। व्याख्यानदाताओं, कवियों और
लेखकों की शिक्षाओं में इधर-उधर ज्वालायें दिखाई देती हैं।
यह अग्नि सनातन आर्य धर्म का वास्तविक पवित्र दशा में लाने के लिये एक भट्टी में थी जिसे ' आर्यसमाज' कहते
हैं। यह अग्नि भारतवर्ष के परम योगी 'दयानन्द सरस्वती के हृदय में प्रकाशमान हुई थी हिन्दू और मुसलमान इस संसार
को भस्म करने वाली अग्नि को बुझाने के लिये चारों ओर शीघ्रता से दौड़े परन्तु यह अग्नि ऐसे वेग से बढ़ती गई कि इस
वेग का इसके संस्थापक दयानन्द को ध्यान भी न था और ईसाइयों ने भी, जिनके उपासना गृह की आग और पवित्र दीपक
पूर्व में ही प्रकाशित हुये थे, एशिया के इस नये प्रकाश को बुझाने के लिये हिन्दू और मुसलमानों का साथ दिया परन्तु यह
आकाशीय अग्नि और भी भड़क उठी और फैल गई समस्त बुराइयों का समूह नित्य की शुद्ध करने वाली भट्टी में जल
कर भस्म हो जाएगा। जब तक रोग के स्थान पर स्वास्थ्य मूर्तियों के स्थान पर प्रकृति, पोप के स्थान पर युवित, पाप के
स्थान पर पुण्य, अविद्या के स्थान पर विज्ञान, घृणा के स्थान पर प्रेम, वैर के स्थान पर समता, नरक के स्थान पर स्वर्ग,दुःख
के स्थान में सुख, भूत-प्रेतों के स्थान पर परमेश्वर और प्रकृति का राज्य न हो जाये तब तक यह अग्नि जलती रहेगी। मैं
इस अग्नि को दिशा को बधाई देता हूं। जब यह अग्नि सुन्दर पृथिवी को नवजीवन प्रदान करेगी तो सार्वभौम सुख, समृद्धि
और आनन्द का युग आरम्भ होगा।"
अध्याय ६
आर्यसमाज ही महर्षि का स्मारक है
पांच हजार वर्ष पहले की बात है, उस समय पाताल देश के आर्य लोग आर्यावर्तीय आर्यों से विवाह सम्बन्ध करते
थे, परन्तु जब अविद्यान्धकार के बढ़ने पर लोगों ने जलयात्रा करनी छोड़ दी तो अमरीका वाले आर्यावर्त और यूरोप आदि
देशों को और इन देशों के निवासी अमरीका वालों को भूल गये और ऐसे अन्धकार में पड़े कि व्यवहार में एक दूसरे के
अस्तित्व तक को अस्वीकार कर बैठे। परन्तु उस अन्ध युग में भी पुरुषार्थ करने वाले 'कोलम्बस' ने पुराने यूनानियों के
सुझाव पर चलकर अमेरिका की सूचना यूरोप को दी 'कोलम्बस ने अमरीका को यद्यपि बनाया नहीं था केवल भले हओं
को उसकी सूचना ही दी है, तो भी आज कोलम्बस के नाम के साथ अमरीका का नाम जुड़ा हुआ है और अमरीका कहते ही
कोलम्बस का स्मरण हो आता है।
आर्यसमाज और दयानन्द का शाश्वत सम्बन्ध-पांच हजार वर्ष से पहले आर्यधर्म सभायें या आर्यसमाजें पृथिवी
पर सर्वत्र थीं क्योंकि वेदों में आर्यधर्मसभा के स्थापित करने की शिक्षा है परन्तु समय आया जबकि लोग आर्य नाम के
साथ आर्यसमाज को भूल गये । आज कैसा शुभ समय है कि महर्षि दयानंद के उपकार से मनुष्य अपने 'आर्य' नाम को
प्राप्त कर आर्य समाज का अस्तित्व देखता है । मुसलमान, ईसाई, नास्तिक, जैनी, पौराणिक आदि किसी भी पुरुष के सामने
आप आर्य समाज का नाम कह दो, वह सुनते ही तत्काल आपको दयानन्द का नाम सुना देगा। यदि कोई अमरीका से
कोलम्बस के नाम को पृथक नहीं कर सकता तो क्या कोई आर्यसमाज से उसके संस्थापक स्वामी दयानन्द के नाम को पृथक
कर सकता है ? यदि आर्यसमाज का नाम लेते ही स्वामी दयानन्द सरस्वती का स्मरण हो जाता है तो वास्तव में आर्यसमाज
से बढ़कर कोई स्वामी जी का स्मारक नहीं हो सकता।
संशयात्मक काया(sansatmak Kaya)part2
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July 31, 2019
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